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Waqt. (the story of time)

Humanity Speaks
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अकेले कमरे में लेटा जब ध्यान लगाने की कोशिश कर रहा था तभी अहसास हुआ कि कोई हल्की सी आवाज बार बार मेरा ध्यान भंग कर रही है। नज़रें घुमाई तो देखा कि कोठरी की सीलन भरी सफेद दीवार पर लटकी मेरे परदादा की चाभी वाली घड़ी टिक-टिक कर रही थी। मैंने एक लम्बी साँस खींची और फिर एक छटके के साथ उसे छोड़ते हुए मुस्कुराया और अपने बचपन की यादों में खो सा गया। मैं बचपन में अक्सर अपने दादा जी से उस घड़ी को लेने की जिद करता था, और मेरे दादा जी मुस्कुरा कर मुझसे कहते थे कि ‘‘बेटा ये तुम्हारी ही तो है’’। फिर मैं दादा जी से कहता कि ‘‘वैसी वाली मेरी नहीं दादा जी, मेरी तो ये तब होगी ना जब आप ये मुझे देंगे’’। और हर बार की तरह दादा जी मुझे फिर वही रटा सा जवाब दे देते कि ‘‘वैसे तो ये आपको उस दिन मिलेगी जब आप इन सुईयों की रफ्तार को समझ लोगे’’। मुझे दादा जी की बात उस वक्त बहुत बेतुकी और बेमतलब सी लगती थी। और वो इसलिए, क्योंकि मेरे लिए उस उम्र में दादा जी की उस गूढ़ ज्ञान बात को समझ पाना संभव नहीं था।
जब मैं 15साल का हुआ तब एक ओर जहाँ मेरे दादा जी का वक्त काटे नहीं कटता था, वहीं दूसरी ओर मेरे लिए दिन भर का वक्त भी दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाने और उनके साथ खेलने को कम पड़ जाया करता था। दादा जी अपनी टूटी चारपाई पर लेटे अक्सर खाँसते हुए मुझसे कहते… ‘‘बेटा सुबोध यहाँ आ! मेरे पास बैठ, तुझसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं’’। पर मेरे दोस्त दरवाजे पर खड़े मेरा इंतिजार कर रहे होते। ‘‘शाम को बात करूंगा दादा जी, अभी मैं फुटबाॅल खेलने जा रहा हॅू’’, ये कहता हुआ मैं दरवाजे से बाहर की ओर दौड़ जाता। वक्त मानो लगातार मुझे किसी बात का इशारा कर रहा था, पर मैं हर बार अपने खेल की वजह से उसे नज़रअंदाज़ कर जाता।

एक शाम मैं अपने दोस्तों के साथ फुटबाल खेल कर लौट रहा था। सड़कों पर अंधेरा डेरा डाल चुका था पर उजाले ने अब तक अपना बिस्तर समेटा नहीं था। मैं अपनी आँखों पर थोड़ा जोर डालकर चीजों को देख पा रहा था। सभी दोस्तों से विदा लेने के बाद मैं उस गली के मुहाने पर पहुँचा जिसमें मेरा घर पड़ता था। अक्सर खाॅमोश रहने वाली मेरी गली में काफी अँधेरा था, पर मैं वहाँ लगी भीड़ और लोगों के रोने की आवाज को साफ पहचान सकता था। कुछ देर के लिए मेरे कदम ठिठक से गए। पर फिर थोड़ा हौसला जुटा कर मैं आगे बढ़ा। लोगों को धकियाते हुए मैं भीड़ के केन्द्र पर पहुँचा तो नज़ारा देख कर दिमाग सन्न रह गया। मानो कुछ देर के लिए वक्त रूक सा गया। मेरे ठीक सामने मेरे दादा जी जमीन पर एक सफेद चादर ओढ़े लेटे थे। मैंने ये नजारा गाँव में पहले भी कई बार देखा था, और इसलिए इसका मतलब अच्छी तरह जानता था। मैं दादा जी के पैरों की ओर घुटनों के बल बैठ गया। और दादा जी के शान्त चेहरे ओर देख कर मन ही मन बोला…..
‘‘दादा जी वह जरूरी बात नहीं करेंगे मुझसे?’’ ‘‘दोस्तों की वजह से लेट हो गया, माफ कर दीजिए आगे से ऐसा नहीं करूंगा’’। पर दादा जी का शान्त चेहरा मानो मुझसे कह रहा था कि वक्त सिर्फ आगे बढ़ना जानता है। काश मैं उसे वापस ला सकता, लेकिन मैं जानता था कि यह संभव नहीं है।

दिन गुज़रे और दादा जी की आखिरी इच्छा के अनुसार वह घड़ी मुझे दे दी गई। मेरी नौकरी लगी और मैं उसे अपने साथ यहाँ शहर ले आया। इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में मैं अब अक्सर वक्त के साथ रेस लगाता हॅू। हर बार वक्त जीत जाता है। पर कई बार जब वक्त मिलता है तो सोचता हूॅ कि आखिर वह कौन सी बात रही होगी जो वक्त की कमी की वजह से दादा जी मुझे नहीं बता पाए थे। लेकिन घंटों तक अंधेरे में तीर चलाने के बाद भी खुद से कोई जवाब नहीं मिलता है।

एक सुबह जब नींद से जागा और वक्त जानने के लिए जब दादा जी की घड़ी पर नजर डाली तो साढ़े ग्यारह बजे थे। पहले मुझे अपनी नींद पर शक हुआ, पर फिर कुछ ध्यान आया और मैंने एक झटके के साथ वापस घड़ी पर नज़र डाली। मेरा अन्दाजा सही था। किसी तकनीकी खराबी से घड़ी रूक गयी थी। मैं फौरन उसे लेकर पास के एक घड़ी साज के पास गया। घड़ी को मैकेनिक के हाथों में सौंपने के बाद मैं बेहद चिंतामुक्त होकर सड़क पर से गुजरते ट्रैफिक को देखने लगा। सर्दियों की सुबह थी। हल्की धूप थी पर ठंडी हवायें अब भी चल रहीं थीं। मैं मौसम का आनन्द ले रहा था कि पीछे से उस घड़ी साज ने आवाज दी ‘‘साहब आपकी घड़ी मैं कोई खराबी नहीं है। ये एक दम ठीक है’’। मैं उसके इस कथन से बिलकुल हैरान था। मैंने घड़ी की ओर निहारते हुए जिज्ञासावश उससे पूछा… ‘‘फिर ये चल क्यॅू नहीं रही थी?’’। ‘‘कुछ नहीं साहब ये कागज का टुकड़ा अटक गया था इसमे’’ं, घड़ी साज ने अपना सामान समेटते हुए उत्तर दिया। इस बार मैंने हड़बड़ाहट मैं एक साथ कई सवाल दागे। ‘‘कौन सा कागज? कहाँ हैं? तुमने फेंका तो नहीं?’’ ‘‘ये रखा है साहब’’ उसने शालीनता से उत्तर दिया। मैं बिना पढ़े उस कागज को अपने कमरे पर ले आया। और सामने की टेबल पर रख दिया। थोड़ी ही देर बाद मैं सामने के बिस्तर पर बैठा मेज़ पर रखे उस कागज की ओर देख रहा था। मेरे मन में मानो विचारों की एक भगदड़ सी मची हुयी थी। एक के बाद एक लगातार कई खयाल आ रहे थे। एक एक पल मानों सदियों सा लग रहा था। मन में कई खयालों का पुलिंदा लिए मैंने आखिरकार उस कागज के पुर्जे को हाथों में उठाया। और एक एक कर कागज की तहों को खोलना शुरू किया।
(क्रमशः)

दिन गुज़रे और दादा जी की आखिरी इच्छा के अनुसार वह घड़ी मुझे दे दी गई। मेरी नौकरी लगी और मैं उसे अपने साथ यहाँ शहर ले आया। इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में मैं अब अक्सर वक्त के साथ रेस लगाता हॅू। हर बार वक्त जीत जाता है। पर कई बार जब वक्त मिलता है तो सोचता हूॅ कि आखिर वह कौन सी बात रही होगी जो वक्त की कमी की वजह से दादा जी मुझे नहीं बता पाए थे। लेकिन घंटों तक अंधेरे में तीर चलाने के बाद भी खुद से कोई जवाब नहीं मिलता है।

एक सुबह जब नींद से जागा और वक्त जानने के लिए जब दादा जी की घड़ी पर नजर डाली तो साढ़े ग्यारह बजे थे। पहले मुझे अपनी नींद पर शक हुआ, पर फिर कुछ ध्यान आया और मैंने एक झटके के साथ वापस घड़ी पर नज़र डाली। मेरा अन्दाजा सही था। किसी तकनीकी खराबी से घड़ी रूक गयी थी। मैं फौरन उसे लेकर पास के एक घड़ी साज के पास गया। घड़ी को मैकेनिक के हाथों में सौंपने के बाद मैं बेहद चिंतामुक्त होकर सड़क पर से गुजरते ट्रैफिक को देखने लगा। सर्दियों की सुबह थी। हल्की धूप थी पर ठंडी हवायें अब भी चल रहीं थीं। मैं मौसम का आनन्द ले रहा था कि पीछे से उस घड़ी साज ने आवाज दी ‘‘साहब आपकी घड़ी मैं कोई खराबी नहीं है। ये एक दम ठीक है’’। मैं उसके इस कथन से बिलकुल हैरान था। मैंने घड़ी की ओर निहारते हुए जिज्ञासावश उससे पूछा… ‘‘फिर ये चल क्यॅू नहीं रही थी?’’। ‘‘कुछ नहीं साहब ये कागज का टुकड़ा अटक गया था इसमे’’ं, घड़ी साज ने अपना सामान समेटते हुए उत्तर दिया। इस बार मैंने हड़बड़ाहट मैं एक साथ कई सवाल दागे। ‘‘कौन सा कागज? कहाँ हैं? तुमने फेंका तो नहीं?’’ ‘‘ये रखा है साहब’’ उसने शालीनता से उत्तर दिया। मैं बिना पढ़े उस कागज को अपने कमरे पर ले आया। और सामने की टेबल पर रख दिया। थोड़ी ही देर बाद मैं सामने के बिस्तर पर बैठा मेज़ पर रखे उस कागज की ओर देख रहा था। मेरे मन में मानो विचारों की एक भगदड़ सी मची हुयी थी। एक के बाद एक लगातार कई खयाल आ रहे थे। एक एक पल मानों सदियों सा लग रहा था। मन में कई खयालों का पुलिंदा लिए मैंने आखिरकार उस कागज के पुर्जे को हाथों में उठाया। और एक एक कर कागज की तहों को खोलना शुरू किया।
(क्रमशः)

दिन गुज़रे और दादा जी की आखिरी इच्छा के अनुसार वह घड़ी मुझे दे दी गई। मेरी नौकरी लगी और मैं उसे अपने साथ यहाँ शहर ले आया। इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में मैं अब अक्सर वक्त के साथ रेस लगाता हॅू। हर बार वक्त जीत जाता है। पर कई बार जब वक्त मिलता है तो सोचता हूॅ कि आखिर वह कौन सी बात रही होगी जो वक्त की कमी की वजह से दादा जी मुझे नहीं बता पाए थे। लेकिन घंटों तक अंधेरे में तीर चलाने के बाद भी खुद से कोई जवाब नहीं मिलता है।

एक सुबह जब नींद से जागा और वक्त जानने के लिए जब दादा जी की घड़ी पर नजर डाली तो साढ़े ग्यारह बजे थे। पहले मुझे अपनी नींद पर शक हुआ, पर फिर कुछ ध्यान आया और मैंने एक झटके के साथ वापस घड़ी पर नज़र डाली। मेरा अन्दाजा सही था। किसी तकनीकी खराबी से घड़ी रूक गयी थी। मैं फौरन उसे लेकर पास के एक घड़ी साज के पास गया। घड़ी को मैकेनिक के हाथों में सौंपने के बाद मैं बेहद चिंतामुक्त होकर सड़क पर से गुजरते ट्रैफिक को देखने लगा। सर्दियों की सुबह थी। हल्की धूप थी पर ठंडी हवायें अब भी चल रहीं थीं। मैं मौसम का आनन्द ले रहा था कि पीछे से उस घड़ी साज ने आवाज दी ‘‘साहब आपकी घड़ी मैं कोई खराबी नहीं है। ये एक दम ठीक है’’। मैं उसके इस कथन से बिलकुल हैरान था। मैंने घड़ी की ओर निहारते हुए जिज्ञासावश उससे पूछा… ‘‘फिर ये चल क्यॅू नहीं रही थी?’’। ‘‘कुछ नहीं साहब ये कागज का टुकड़ा अटक गया था इसमे’’ं, घड़ी साज ने अपना सामान समेटते हुए उत्तर दिया। इस बार मैंने हड़बड़ाहट मैं एक साथ कई सवाल दागे। ‘‘कौन सा कागज? कहाँ हैं? तुमने फेंका तो नहीं?’’ ‘‘ये रखा है साहब’’ उसने शालीनता से उत्तर दिया। मैं बिना पढ़े उस कागज को अपने कमरे पर ले आया। और सामने की टेबल पर रख दिया। थोड़ी ही देर बाद मैं सामने के बिस्तर पर बैठा मेज़ पर रखे उस कागज की ओर देख रहा था। मेरे मन में मानो विचारों की एक भगदड़ सी मची हुयी थी। एक के बाद एक लगातार कई खयाल आ रहे थे। एक एक पल मानों सदियों सा लग रहा था। मन में कई खयालों का पुलिंदा लिए मैंने आखिरकार उस कागज के पुर्जे को हाथों में उठाया। और एक एक कर कागज की तहों को खोलना शुरू किया।
(क्रमशः)

दिन गुज़रे और दादा जी की आखिरी इच्छा के अनुसार वह घड़ी मुझे दे दी गई। मेरी नौकरी लगी और मैं उसे अपने साथ यहाँ शहर ले आया। इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में मैं अब अक्सर वक्त के साथ रेस लगाता हॅू। हर बार वक्त जीत जाता है। पर कई बार जब वक्त मिलता है तो सोचता हूॅ कि आखिर वह कौन सी बात रही होगी जो वक्त की कमी की वजह से दादा जी मुझे नहीं बता पाए थे। लेकिन घंटों तक अंधेरे में तीर चलाने के बाद भी खुद से कोई जवाब नहीं मिलता है।

एक सुबह जब नींद से जागा और वक्त जानने के लिए जब दादा जी की घड़ी पर नजर डाली तो साढ़े ग्यारह बजे थे। पहले मुझे अपनी नींद पर शक हुआ, पर फिर कुछ ध्यान आया और मैंने एक झटके के साथ वापस घड़ी पर नज़र डाली। मेरा अन्दाजा सही था। किसी तकनीकी खराबी से घड़ी रूक गयी थी। मैं फौरन उसे लेकर पास के एक घड़ी साज के पास गया। घड़ी को मैकेनिक के हाथों में सौंपने के बाद मैं बेहद चिंतामुक्त होकर सड़क पर से गुजरते ट्रैफिक को देखने लगा। सर्दियों की सुबह थी। हल्की धूप थी पर ठंडी हवायें अब भी चल रहीं थीं। मैं मौसम का आनन्द ले रहा था कि पीछे से उस घड़ी साज ने आवाज दी ‘‘साहब आपकी घड़ी मैं कोई खराबी नहीं है। ये एक दम ठीक है’’। मैं उसके इस कथन से बिलकुल हैरान था। मैंने घड़ी की ओर निहारते हुए जिज्ञासावश उससे पूछा… ‘‘फिर ये चल क्यॅू नहीं रही थी?’’। ‘‘कुछ नहीं साहब ये कागज का टुकड़ा अटक गया था इसमे’’ं, घड़ी साज ने अपना सामान समेटते हुए उत्तर दिया। इस बार मैंने हड़बड़ाहट मैं एक साथ कई सवाल दागे। ‘‘कौन सा कागज? कहाँ हैं? तुमने फेंका तो नहीं?’’ ‘‘ये रखा है साहब’’ उसने शालीनता से उत्तर दिया। मैं बिना पढ़े उस कागज को अपने कमरे पर ले आया। और सामने की टेबल पर रख दिया। थोड़ी ही देर बाद मैं सामने के बिस्तर पर बैठा मेज़ पर रखे उस कागज की ओर देख रहा था। मेरे मन में मानो विचारों की एक भगदड़ सी मची हुयी थी। एक के बाद एक लगातार कई खयाल आ रहे थे। एक एक पल मानों सदियों सा लग रहा था। मन में कई खयालों का पुलिंदा लिए मैंने आखिरकार उस कागज के पुर्जे को हाथों में उठाया। और एक एक कर कागज की तहों को खोलना शुरू किया।
(क्रमशः)

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