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आँखों ही आँखों में

Humanity Speaks
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तेरी मोहब्बत में आॅखें चार कर ली मैंने।
तेरी आशिकी में दिन गुजरे, रातें पढ़ने में गुलजार कर लीं मैंने।
जुनून-ए-इश्क कुछ यॅू चढ़ा हम पर।
कि तेरी मुस्कान को दिन और तेरे आॅसुओं को शाम कर ली मैंने।

20वीं सदी के इस विकासशील भारत के युवा वयस्कों की मनोदशा कुछ ऐसी ही है आज कल। फेसबुक और गूगल के इस दौर में शादी के लिए गाय सी भोली घरेलू लड़की और शराफत के पुतले लड़के ढूढ़ना सपनों की सी बात हो चली है। गये जमाने जब रिश्ते वाले बड़ी अकड़ के साथ कहा करते थे कि ‘‘दहेज और लेन देन की आप फिक्र ना करें, बस हमें तो लड़की घरेलू चाहिए’’। जान पड़ना था जैसे शादी करने ना आए हों बाजार में कोई सामान खरीदने निकले हों। पर आज वक्त पूरी तरह से बदल गया है, 12 की तीन तिकड़ियाॅ नजदीक हैं। और लोग उस अद्भुद सामयिक संयोग का दबे हुए से डर व रोमांच के साथ इंतिजार कर रहे हैं। पर इस सबके ठीक उलट भारतीय युवा पीढ़ी नये दौर में हर रोज नई कहानियाॅ लिखने में मशगूल है। हर शाम के ढलते सूरज के साथ किसी कहानी का आखिरी पन्ना बन्द होता है तो हर सुबह के सूरज के साथ एक नई कहानी शुरू हो जाती है। जो भी हो आखिर खून तो हिन्दुस्तानी है, थकना नहीं जानता और ना ही हार मानना। इसलिए हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिन भर शापिंग माॅल, पार्कों और रेस्टोरेन्टस में ‘‘अपनी’’ कहानियों के अध्याय लिखने के बाद वही युवा वर्ग रात के अॅंधेरे में टेबल लैम्प के तले रखी आइंस्टीन और न्यूटन की किताबों में रात भर झाॅक कर उल्लू की तरह अपनी आॅखें फोड़ता है। सुबह जागने पर नजारा अजीब होता है, काॅफी का कप दूर और घड़ी की सुई का काॅटा 10के करीब होता है। अब ऐसी अफलातून दिनचर्या के बाद नुकसान किस किसका होता है ये मुद्दा तो थोड़ा विवादास्पद है पर फायदा किसका होता है ये मैं यकीन से कह सकता हॅू। यॅू तो फायदे में कई वर्ग जैसे रेड़ी वाले, रेस्तरा वाले और थिएटर वाले आते है। पर इन सबमें भी बाजी मार ले जाता है हमारा आॅप्टीशियन। इश्क में आॅखे दो से चार और फिर पढाई में चार से आठ होते वक्त नहीं लगता। और इसका सीधा फायदा मिलता है उस आॅप्टीशियन को जो ये फेसला करता है कि किस न0 के लेन्सों को अगले कुछ हफतों, महीनों या सालों तक आपकी नाक के ठीक उूपर सवार रहना होगा। जिस हिसाब से आज कल बहुत छोटी उम्र के बच्चे भी सड़क पर चश्मा लगाये नजर आ जाते हैं उससे एक बात और साफ हो जाती है कि कहीं ना कहीं हमारा खान पान, पोषण और रहन सहन भी इस सब के लिए जिम्मेवार है। और इस बात को तो डब्लू एच ओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन भी नहीं नकार सकी है।

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