Menu
blogid : 13214 postid : 56

भाई साहब कहाँ जाओगे..?

Humanity Speaks
Humanity Speaks
  • 49 Posts
  • 41 Comments

rickshawsouth-india-068

प्रकृति का एक बेहद बुनियादी सा नियम है। एक के नुकसान में हमेशा किसी दूसरे का फायदा निहित होता है। आज जब अपने घर के नज़दीकी रेलवे स्टेशन के पास से गुज़र रहा था तब स्टेशन के ठीक बाहर वाली सड़क पर हमेशा की तरह काफी भीड़-भाड़ थी। शायद हाल ही में कोई ट्रेन स्टेशन पर आकर रुकी थी। भारी मात्रा में यात्री अपने सामान के साथ स्टेशन के निकास द्वार से बाहर निकल रहे थे। सड़क के दोनों किनारों पर आॅटो वाले लम्बी कतार लगाकर खड़े थे। उन्हीं आॅटो वालों की कतार में थोड़ा आगे चलने पर मैंने देखा कि एक साइकलरिक्शे वाला अपना साइकलरिक्शा लिए कतार में खड़ा था। आते जाते यात्रियों को वह बेहद उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा था। अधिकतर लोग सीधे किसी आॅटो वाले के पास जाकर रुक रहे थे। कोई भी उसके रिक्शे में आकर नहीं बैठ रहा था। कुछ ही देर में उसके चेहरे पर उदासी के भाव आ गये। उस रिक्शा चालक की आँखों में शाम के खाने की फिक्र मुझे साफ दिखाई दे रही थी।
वक्त के साथ लोगों के लिए ‘‘टाइम इज मनी’’ होता जा रहा है, और लोग अपना पैसा सिर्फ उसे देना चाहते है जो उनका वक्त बचा सके। बड़ी कम्पनियाँ भी इस बात को भली भाँति समझती हैं। इसीलिए आये दिन बाजार में कुछ न कुछ ऐसा उतारती रहती हैं जिससे लोग इसका फायदा ले सकें। अब जाहिर है कि लोग फायदा लेंगे तो कम्पनी को भी फायदा मिलेगा। लेकिन कहीं न कहीं वक्त की इस रफ्तार में उन लोगों का नुकसान हो रहा है जो टैक्नोलाॅजी के आने से पहले मेहनत मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे। अब जब लगभग सारा काम मशीनों ने सम्भाल लिया हैं तो बेशक इसका फायदा कम्पनी मालिकों और व्यापारियों को मिल रहा है। क्यूँकि मशीनें मैन पाॅवर की तुलना में काफी तेज व सस्ते खर्च पर काम करती हैं। अब अगर समस्या में कोई है तो वह है बेचारा गरीब आदमी। एक रिक्शे वाले से जब मैंने पूछा कि ‘‘भईया, एक बात बताओ जरा, अब ये साइकल रिक्शा छोड़ के आॅटो चलाना शुरू क्यँू नहीं कर देते?’’ तो उसने अफसोस करते हुए जवाब दिया कि ‘‘चाहत तो हमो यही हैं बाबूजी पर का करी, ई रिक्सा के अलावा और कोई काम आवत भी तो ना है हमका’’। शायद आपको हैरत होगी पर ज्यादातर मजदूरी या रिक्शा चालन जैसे छोटे मोटे काम करने वालों से यह सवाल करने पर उनमें में ज्यादातर का जवाब यही होता है कि उन्हें और कोई काम नहीं आता है। यह इस बात का सीधा सा उदाहरण है कि किस तरह टैक्नाॅलाजी इन्सान की जिन्दगी पर हावी होती जा रही है। वक्त के बारे में एक मशहूर कहावत है कि ‘‘वक्त कहता है कि मेरे साथ दौड़ो वरना मैं तुम्हें पीछे छोड़ देगा, क्यूँकि मुझे रुकना नहीं आता’’। यह शायद ऐसे ही लोगों की कहानी है जो वक्त के साथ कदम न मिला सके।
अकारण दुनियाँ में कुछ भी नहीं होता है, और इसीलिए ऐसे लोगों के ऐसी स्थिति में होने के पीछे भी कुछ न कुछ कारण हैं। कुछ ने बचपन में गरीबी या अन्य कारणों से पढ़ाई नहीं की तो कुछ को मजबूरी में इन पेशों को अपनाना पड़ा। कारण कुछ भी हों पर सवाल ये उठता है कि क्या अब ऐसे लोगों के पास भूखों मरने के सिवा कोई चारा है? जवाब यह है कि अगर हम और आप मजबूरी के मारे इन लोगों की मानवता के नाते थोड़ी सहायता करेंगे तो कम से कम ऐसे लोगों को दर दर ठोकरें नहीं खानी पड़ेंगी। मदद करने से मेरा तात्पर्य यह कत्तई नहीं है कि हमें ऐसे लोगों को भीख देनी चाहिये या ऐहसान के तौर पर उनकी सहायता करनी चाहिए। कहने का अर्थ सिर्फ इतना सा है कि दौर में जब हमारी नौजवान पीढ़ी नौकरी न मिलने पर फौरन चोरी,डकैती और चेन स्नैचिंग जैसी चीजों पर हाथ आजमाने चल देती है। ऐसे में कुछ लोग है जो आज भी गलत रास्ते को चुनने की बजाय मेहनत करके ईमानदारी से दो वक्त की रोटी कमाना चाहते हैं। यदि हम मौका पड़ने पर ऐसे लोगों की सेवायें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से लेंगे तो शायद ऐसे लोगों की बेहद कठिन हो चुकी जिंदगी में हम कुछ सहायता कर सकेंगे।
पुनीत पाराशर, कानपुर
puneet.manav@gmail.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply