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घाघ एक मशहूर कवि थे। पुराने दौर में उनकी कविताएं और दोहे बच्चों को हिन्दी की पुस्तक में से पढ़ाए जाते थे। घाघ की कहावतें ज्यादातर किसानों और खेती को लेकर हुआ करती थीं। हैरत की बात यह थी कि उन्होंने अपनी सभी रचनाएं इतना सटीक आँकलन करने के बाद लिखी थीं कि वह ज्यादातर बार फिट बैठती थीं। बादलों का रंग देखकर बारिश का अंदाज़ा लगाने की बात हो या पशु बाजार से किसी सही पशु को खरीदने का गणित, घाघ की कविताएं और कहावतें हर जगह काम आया करती थीं।
लेकिन आज कल जान पड़ता है जैसे घाघ के तुर्रे किसी भी चीज़ पर सही साबित नहीं होते हैं। प्रकृति एक नया ही आयाम लेने लगी है। हिन्दी महीनों के हिसाब से जोड़े तो न तो ज्येष्ठ बैसाख में गर्मी होती है और न हीं सावन भादों में बरसात। गए वह जमाने जब सावन के महीने में हफ्तों तक मूसलाधार बारिश हुआ करती थी। अब न तो माघ पूस में सर्दी पड़ती है, न बैसाख में गर्मी। सारा चक्र ही आगे पीछे हो गया है। मालूम चलता है कि हर चीज़ अपने मूल वक्त से कुछ माह आगे खिसक चली है। बल्कि कुछ मामलों में देखा जाए तो लगता है कि किसी भी चीज़ का कोई वक्त ही नहीं रह गया है।
वर्तमान मौसम की यदि बात करें तो बेमौसम हुई बरसात ने उत्तर भारत के सभी किसानों को बरबाद करके रख दिया है। रबी की पूरी फसल तबाह हो गई। खेतों में पड़ा सारा गेंहूँ पहले तो बारिश ने बरबाद कर दिया और उसके बाद रही बची कसर आँधी तूफान ने पूरी कर दी। देश का सारा आपदा प्रबंधन और मौसम विज्ञान धरा का धरा रह गया। प्रकृति की इस मार से तिलमिलाए सैकड़ों किसानों ने जब एक के बाद एक आत्महत्या करना शुरु कर दिया तो सभी मंत्रालयों और तंत्रों की भी नींद टूटी। कई ने अपनी तरह से राहत का आश्वासन दे डाला तो कई ने लाखों रुपये के मुआवजे की घोषणा कर दी। हालाँकि मुआवजे की राशि के मामले में नगाड़े कितनी राशि के लिए पीटे गए और अंतिम व्यक्ति के हाथ क्या लगा यह एक अलग सवाल है।
मौसम की मार से मर रहे किसानों की मौत के मुद्दे को राजनीतिक दृष्टिकोण से क्या आयाम दिए जा रहे हैं यह एक अलग बाद है किन्तु वास्तविकता में आज कल का मौसम वह ऊँट हो गया है जो न जाने कब किस करवट बैठेगा इस बात का अंदाज़ा लगा पाना न तो मौसम विज्ञान के हाथ की बात रह गया है और न हीं ज्योतिष शाष्त्र की। सर्दियों के मौसम में बारिश होने लगती है। बरसात के मौसम में उमस बढ़ जाती है। गरमी के मौसम में बरसात हो रही है और पतझड़ के मौसम में पेड़ों पर हरियाली छाई हुई है। जान पड़ता है कि प्रकृति ने अपने हिसाब से कुछ नए ही नियम गढ़ लिए हैं जिनका अंदाज़ा अभी इंसान को नहीं है।
किन्तु हकीकत यह है कि प्रकृति के इस असंतुलन के पीछे जिम्मेदार भी मनुष्य ही है। दौलत, शौहरत और चमक-दमक भरी जिंदगी की दौड़ में प्रकृति का खयाल कितने लोगों के जेहन में आता है इस बात का इल्म हम सभी को है। पूरी कहानी को बखान करने के लिए इतना सा इशारा भर काफी है। रोज़ टनों प्लास्टिक और आर्गेनिक कचरा अनप्रोसेस्ड तरीके से यहाँ वहाँ डम्प कर दिया जाता है। अनगिनत गाड़ियाँ हर सेकेण्ड बेहिसाब कार्बन-डाई-आक्साइड, सल्फर और ढेरों हानिकारक तत्व हवा में मिला रही हैं। प्रकृति की ओर से इंसान को दिया गया अमूल्य तोहफा यानि पानी की न जाने कितनी मात्रा लोगों के द्वारा बस यूँही बरबाद कर दी जाती है।
हकीकत यही है कि इंसान प्रकृति इंसान को बस वही दे रही है जिसका वह सही मायने में हकदार है। जब पानी सर से ऊपर जाने लगता है तो कुदरत भी अपने तरीके से इंसान को यह अहसास करा देती है कि यदि इंसान ने उसके साथ ठीक व्यवहार नहीं किया तो उसे क्या अंजाम भुगतने पड़ सकते हैं। सुनामी, ओजोन परत में छेद, ग्लोबल वार्मिंग आदि ऐसे कारक हैं जिनके नाम सुनते ही प्रत्येक इंसान के कान खड़े हो जाते हैं और वह बेहद सजग होकर प्रकृति के बारे में सोचने लग जाता है। और यही ज़रूरी भी है। हाल ही में दिल्ली से शुरू किये जाने वाले वायु प्रदूषण के स्तर को प्रदर्शित करने वाले डिजिटल मीटर एक बेहद अच्छा कदम हैं लोगों को उनके आस पास के माहौल को स्वस्थ्य और बेहतर बनाने के लिए। वास्तविकता में हमें कुछ ऐसे ही प्रयासों की ज़रूरत है।
By- पुनीत पाराशर
Jagran Institute of Management & Mass Communication
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