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पुलाव भी कहीं ख्याली होते हैं? होते क्यों नहीं हैं हुज़ूर, बिलकुल होते हैं। कभी मोमोज़ और चाउमीन के स्टॉल के सामने खड़े अधफटे कपड़े पहने गरीब बच्चों को देखिए। उनकी आँखों में जो दिखता है वह लालच नहीं लालसा है। उनका तो पुलाव भी ख्याली, चाउमीन भी, मोमोज़ भी और बर्गर भी। बस ख्यालों में ही रह जाते हैं। जब कभी कढ़ाई में चाउमीन के नूडल्स को सुलझाते चमचे की चमक आँखों में ज्यादा कौंधने लगती है तो गिड़गिड़ा कर स्टॉल के पास खड़े जीन्स टी-शर्ट वाले किसी कूल ड्यूड से हाथ फैला कर माँग लेते हैं। अक्खड़ हुआ तो दुत्कार कर भगा देता है और अगर कोई दानदाता मिल गया दस में से एक बार दो किस्मत चमक ही उठती है। हाथ में चाउमीन की प्लेट आते ही उनकी आँखों में खुशी का ठिकाना नहीं रहता। लेकिन हाँ, ऐसी लॉटरी हमेशा नहीं लगती और जब नहीं लगती है तो फिर से हमारी हर चीज़ ख्याली हो चलती है।
एक भिखारी जब भीख माँगने निकलता है तो उसे लोगों से सैकड़ो तरह के उत्तर मिलते हैं। मसलन, आगे बढ़ो.। छुट्टा नहीं है.। हट्टे कट्टे तो हो, कोई काम धंधा क्यों नहीं करते वगैरह वगैरह। हर किसी के पास गरीबों को भीख न देने के अपने तर्क हैं। यह बात सच है कि कई लोग अपनी कामचोरी की आदत के चलते भीख माँगते हैं, पर जैसी कि एक कहावत है कि गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। तो ऐसे में हज़ारों ज़रूरतमंद और मजबूरी के मारों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस बात को तय करने का कोई पैमाना नहीं है कि भीख मांगने वाला व्यक्ति वाकई ज़रूरतमंद है अथवा ढ़ोंगी। नतीजतन कई बार किसी बेचारे भूखे लाचार की भूख आपके किसी पूर्वाग्रह का शिकार हो जाती है।
हमारा समाज भी अजीब है। अगर हर पैसे वाला व्यक्ति अपनी क्षमता के हिसाब से गरीब लोगों की मदद करे तो किसी को भी भूखे पेट सोने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हम नेट न्यूट्रैलिटी की बात करते हैं पर आज तक यही न्यूट्रैलिटी भूख पर लागू न कर पाए। उन्हें समाज, राजनीति, लोकतंत्र किसी भी चीज़ की परवाह नहीं है बस एक फिकर है कि सुबह शाम किसी तरह पेट भर रोटी नसीब हो जाएगी या नहीं। जिस दिन ईश्वर मेहरबान होता है उस दिन चूल्हा जलता है घर में, और पेट की आग बुझ जाती है पर जिस दिन नसीब में रोटी नहीं होती है उस दिन सो जाते हैं पेट पर गीला तौलिया बाँध कर। टूटी हुई झोपड़ी के छप्पर को निहारते हुए और ख्वाबों ख्यालों की दुनियाँ में एक बेहतर जिंदगी की कल्पना में।
By: पुनीत पाराशर
puneet.manav@gmail.com
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