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प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो इंसान की सबसे अहम खोजों में गिनी जाती है। इसका उपयोग बेहद सस्ता और आसान है। लेकिन साथ ही साथ प्लास्टिक को सबसे घातक खोज भी कहा जा सकता है। आज प्लास्टिक का उपयोग विश्व स्तर पर अंधाधुंध तरीके से हो रहा है। बाज़ार में बिकने वाले लगभग प्रत्येक उत्पाद में प्लास्टिक की पैकेजिंग होती है और जिन उत्पादों के साथ ऐसा नहीं है उन्हें भी पॉलीथीनों में ही खरीदा बेचा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसका उपयोग बेहद सुगम एंव सस्ता है। इसके अलावा प्लास्टिक से बने उत्पादों की भी भारत एंव अन्य देशों में कोई कमी नहीं है। प्लास्टिक से बनी कुर्सियाँ, प्लास्टिक की मेजें, प्लास्टिक पाइप्स और दरवाज़े। लगभग सभी कुछ प्लास्टिक में उपलब्ध है। प्लास्टिक के अलावा अन्य पदार्थों से बनी वस्तुओं में भी कहीं न कहीं इनका उपयोग होता है, मसलन स्टैप्लर, डॉक्यूमेंट फाइल्स, पेन अथवा किसी भी इलैक्ट्रिकल सामान को ले लीजिए।
प्लास्टिक के लगातार उपयोग को लेकर समस्या यह भी है कि इन्हें लेकर उत्पादक, विक्रेता और खरीददार उतने संजीदा नहीं हैं। सिद्धांत बेहद सीधा सा है, चूँकि प्लास्टिक सहूलियत देता है अतः हम उसका उपयोग करते हैं। इससे होने वाले फायदे नुकसानों के बारे में कहीं भी ज्यादा बात चीत होती सुनाई नहीं पड़ती। जबकि असल में हकीकत यह है कि प्रत्येक प्लास्टिक पॉलीथीन के उत्पादन के साथ हमारे पर्यावरण को भारी खतरा होता जा रहा है।
प्लास्टिक वह अकार्बनिक कचरा है जिसका उत्पादन प्लास्टिक ग्रेन्यूल्स से किया जाता है। आज भारत में सैकड़ों छोटे बड़े कारखानों में इसका उत्पादन सरकारी नियमों के अनदेखी करते हुए भारी मात्रा में किया जा रहा है। इसके पीछे वजह यह है कि इस व्यवसाय में कम लागत में मोटा मुनाफा मिलता है। बाज़ार में प्लास्टिक की अन्धाधुंध मांग है और इसकी आपूर्ति के लिए ऐसे तमाम कारखाने लगातार 24 घंटे काम कर रहे हैं। प्लास्टिक का उत्पादन जितना आसान है इसे नष्ट कर पाना उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है। यूँ तो प्रकृति ने प्रत्येक चीज़ के लिए एक चक्र निर्धारित किया हुआ है जिसमें प्रत्येक चीज़ किसी दूसरी चीज़ द्वारा कन्ज्यूम कर ली जाती है। किन्तु प्लास्टिक के साथ ऐसा नहीं है। प्लास्टिक को चाहे आप किसी भी तरह से नष्ट करने का प्रयास करें यह प्रदूषण करती ही है। जलाने पर यह वायु प्रदूषण करती है और पानी में बहाने पर यह हमारे नदी नालों को जाम कर उनके प्रवाह को रोकती है। कहा जाता है कि मृदा मल से लेकर मुर्दे तक प्रत्येक चीज़ को बड़ी सफाई से नष्ट कर देती है। लेकिन प्लास्टिक को नष्ट करने के मामले में मिट्टी भी मात खा जाती है। कागज़ को मिट्टी में दफ्न करने के दो से दस दिन के भीतर मिट्टी इसे चट कर जाती है, लेकिन प्लास्टिक के मामले में यह समय बढ़कर 100 साल हो जाता है, और एक सदी बाद भी मिट्टी में दबा प्लास्टिक तब नष्ट होता है जब ठीक उतनी ही मात्रा में मिट्टी स्वयं नष्ट हो जाती है। इसके अलावा जितने समय तक प्लास्टिक मिट्टी में दबा रहता है उतने समय तक यह उसकी उर्वरक क्षमता को कम करता है एंव कटाव को बढ़ाता है।
छोटे-मोटे कारखानों में बनी घटिया गुणवत्ता की प्लास्टिक की क्वालिटी इतनी ज्यादा खराब होती है कि इनमें रखे जाने वाले सामान पर कई बार यह अपना रंग छोड़ देती है और रंग के साथ ढेरों हानिकारक कैमिकल्स भी। इससे न सिर्फ भोजन विषैला होने की सम्भावनाएं रहती हैं बल्कि इस तरह का प्लास्टिक भोजन में मिल कर हमारे शरीर में बारीक मॉलिक्यूल्स के रूप में पहुँच जाता है।
पिछले 2 दशकों में चीन ने भारत में प्लास्टिक की सप्लाई जितनी तेज़ी से बढ़ाई है उतनी किसी भी अन्य देश ने नहीं की है। इससे भारत न सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से चीन की अर्थव्यवस्था को मज़बूत कर रहा है बल्कि भारत के पर्यावरण पर भी बट्टा लगा रहा है। भारत में सस्ता और कामचलाऊ सामान खरीदने की मानसिकता रखने वाले करोड़ो ग्राहकों ने भारी मात्रा में चीन के सामान का उपभोग किया है और आज भी कर रहे हैं। उनके देश में बने सामान को खरीदकर न सिर्फ हम चीन को आर्थिक रूप से मजबूत कर रहे है बल्कि अपने देश के वातावरण को भी तहस नहस कर रहे हैं।
मानकों के हिसाब से देखें तो पीवीसी, पीवीडीसी, एलडीपीई, और एचआईपीएस समेत ढेरों तरह का प्लास्टिक बाजार में चलाया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि सरकार की ओर से इस बारे में कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। लेकिन जो नियम कायदे प्लास्टिक की रोकथाम के लिए बनाए गए हैं वह या तो नाकाफ़ी हैं और या फिर लॉबी अथवा अन्य तरीकों से उनका उल्लंघन किया जा रहा है। भारत सरकार के मुताबिक प्लास्टिक बैग के 40 माइक्रोन का मानक दिया गया है। इससे अधिक माइक्रोन की पॉलीथीन का उपयोग वर्जित है। किन्तु बाज़ार में आज भी 40 माइक्रोन से कहीं अधिक मानक का प्लास्टिक उपयोग किया जा रहा है। दुकानदार इन पॉलीथीन को सस्ते अथवा ज्यादा मज़बूत होने के लालच में खरीद लेते हैं। ऐसा नहीं है कि प्लास्टिक का कोई विकल्प नहीं है, कागज़ और टाट के बने ऐसे थैले बाज़ार में उपलब्ध हैं जो न सिर्फ काफ़ी मजबूत हैं बल्कि दिखने में भी खूबसूरत हैं। किन्तु कीमत में सस्ती और सुगमता से उपलब्ध हो जाने के कारण आज भी लोग प्लास्टिक बैग को ही प्राथमिकता से उपयोग करते हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक किसी भी चीज़ का उत्पादन करने वाली कम्पनी स्वंय उसके वेस्ट का निपटान करने के लिए जिम्मेदार होती है। किन्तु ऐसी बहुत ही कम कम्पनियाँ हैं जो इस नियम का पालन कर रही हैं। अंततः म्युनसिपल कॉर्पोरेशन ही इस तरह के सारे कचरे को शहरों से बाहर ले जाकर डम्प कर रहे हैं। जिस तरह से प्लास्टिक का उपयोग लगातार बढ़ रहा है और इसे नष्ट और रिसाईकल करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार नहीं किया जा रहा है उससे लगता है कि एक दिन यह बहुत बड़ी समस्या का रूप ले लेगा। हालत यह हो चुकी है कि मंडियों और कचरे के डिब्बों में पड़ा प्लास्टिक जानवरों द्वारा खाया जा रहा है और लौट फिरकर यह हमें ही नुकसान पहुँचा रहा है।
जब भी आप अपने घर के ऑर्गेनिक कचरे को प्लास्टिक बैग में भरकर बाहर फेंक देते हैं तो इससे न तो वह आर्गेनिक कचरा ही ठीक से डिकम्पोस हो पाता है और न हीं प्लास्टिक। समस्या यह है कि प्लास्टिक वायुरोधी भी है अतः यह बाहर के वायुमण्डल को भीतरी वातावारण से पूरी तरह पृथक कर देता है। अतः आर्गेनिक कचरा मसलन सब्जियों के छिलके, घर का बचा हुआ खाना आदि आक्सीकृत नहीं हो पाता है। ऐसा नहीं है कि इस बारे में संस्थाएं काम नहीं कर रही हैं। किन्तु जो हैं वह ऊंट के मुँह में जीरा जितना ही असर कर रही हैं। ज़रूरत इस बात की है कि लोग इस बारे में जागरूक हों और प्लास्टिक के इस्तेमाल से जितना हो सके बचें।
By: पुनीत पाराशर
puneet.manav@gmail.com
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