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घर से बहुत दूर हूँ। लोग मशीनों की तरह काम करते हैं यहाँ। किसी के पास फुर्सत नहीं एक दूसरे का दर्द बांटने को। ऐसा लगता है जैसे तरक्की की दौड़ में इंसान ने भावनाओं का गला घोंट दिया है। इंसानी भावनाएं किस कदर शून्य हो चुकी हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सड़क किनारे कोई इंसान अगर मर भी रहा है तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। सपाट लम्बी सड़कों पर दिल्ली दौड़ती रहती है।
कुछ कर दिखाने का जूनून अब भी मुझमें मरा नहीं है। लेकिन न जाने क्यों कभी-कभी लगता है कि बहुत अकेला पड़ गया हूँ। मानवीय सहानुभूति की भी एक ज़रूरत होती है इंसानी जीवन में। यूँ तो वक्त-बेवक्त घर पर फोन से बात हो जाती है। मार्गदर्शन मिलता रहता है। ये करना, वो मत करना, अपना खयाल रखना वगैरह वगैरह।
धीरू भाई अंबानी बोल गये थे, कर लो दुनिया मुठ्ठी में। लेकिन अब लगता है कि दुनिया मुठ्ठी से निकल कर उंगलियों पर आ गई है। पहले कम से कम इतना तो था कि हफ्ते या महीने भर में एक बार ही सही पर दोस्त जब हाल-चाल लेने को कॉल किया करते थे तो उनकी आवाज़ सुन कर एक सुखद अहसास होता था। अब तो व्हाट्सएप, हाइक, आईएमओ, लाइन, वी चैट और टेलीग्राम जैसी बेहिसाब सोशल नेटवर्किंग साइटों के चलते इंसान उठते-बैठते, चलते-रुकते हर वक्त फोन की स्क्रीन पर नज़रें गढ़ाये है।
लेकिन मैं रूढ़िवादी विचारधारा के लोगों की तरह नहीं सोचता। मुझे लगता है कि इसके अपने फायदे भी हैं। जिस तरह आज के इंसान के पास वक्त की कमी है उसके लिए शायद यह ठीक भी है। भावनाओं को बयां करने के लिए इमोजीस़ और बात कहने के लिए टैक्स्ट है। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें कहने की कई बार इंसान हिम्मत ही नहीं जुटा पाता। इन एप्लीकेशन्स के माध्यम से वह बातें भी इंसान बड़ी बेबाकी से कह जाता है। अच्छा तो है।
दोस्त-यारों से लेकर मेरे ऑफिस का चपरासी तक व्हाट्सएप पर है। सारे के सारे 24 घंटे मुझसे जुड़े हुए हैं। बस एक ही कमी जिसके जुड़ने से थोड़ी राहत सी आ जाती है वह नहीं है यहाँ व्हाट्सएप पर। माँ नहीं है व्हाट्सएप पर। अजीब विडंबना है कि जिसने पाई पाई जोड़ कर मुझे स्नातक तक की पढ़ाई करा दी वह खुद महज़ आठवीं पास है। वह हमेशा से कहती रही। खूब पढ़ाई करो, यह पैसा बर्बाद नहीं इनवेस्ट हो रहा है। ऐसा नहीं है कि मैंने उसे सिखाने की कोशिश नहीं की। लेकिन उसका जवाब हमेशा यही होता था कि, “छोड़ यह सब खेखले। मुझे घर का काम संभालने से फुर्सत होगी तब कुछ कर पाउंगी ना।“
सोचता हूँ कितना कुछ कर पाता अगर माँ भी व्हाट्सएप पर होती। वह हिन्दी में मैसेज लिख कर भेजती, “खाना खाया कि नहीं?” और फिर मैं लिखता, “हाँ, खा चुका अब सोने जा रहा हूँ।“ वह मुझे घर की तस्वीरें खींच कर भेजा करती जिससे मैं दूर रहकर भी अपने घर से हर वक्त जुड़ा रहता। पड़ौस की पागल काकी से लेकर अपने पालतू कुत्ते लड्डू तक सभी की तस्वीरें साझा करता रहता। कभी-कभी मैं भी यहाँ की तस्वीरें माँ को भेजता और कैप्शन में लिखता ये देख माँ मेरा ऑफिस। यहीं काम करता हूँ मैं।
पर माँ इतना नहीं सोचती। उसे तो जब भी कभी याद आती है तो वह अपना मोटा चश्मा आँखों पर चढ़ा कर अपने फोन से नंबर घुमा देती है। दिन में जब तक दो-चार बार बात न हो जाए उसे चैन नहीं आता। कभी-कभी मैं काम के बोझ तले झल्लाकर पूछता हूँ, “कितना परेशान होती हो। ठीक हूँ कुछ नहीं हुआ है। सुबह बात हुई तो थी।“ तब वह कहती है, “चुप कर, तू कुछ नहीं जानता है। बच्चों की फिकर होती है। जब तेरे बच्चे होंगे तो पता चलेगा।“
मदर्स डे पर सभी अपनी माँ के साथ खींची गई तस्वीरें व्हाट्सएप प्रोफाइल पर लगाते हैं। मैंने ऐसा कभी नहीं किया। यही सोचकर कि जिसके साथ तस्वीर है जब वही न देख पाये तो क्या फायदा। कई दोस्त हैं जो बहुत पढ़े लिखे और बेहद समृद्ध परिवार से हैं। उनको अपने माता-पिता के साथ वीडियो कॉल पर बात करते देख कर बहुत अच्छा लगता है।
सारी बातें अपनी जगह हैं। लेकिन हकीकत यही है फर्क नहीं पड़ता कि माँ-बाप आपके साथ हैं या नहीं। उनसे आपकी बात हो पा रही है या नहीं। माध्यम का भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। आपके माता-पिता का आशीष हमेशा आपके साथ है और इस बात का हर शख्स को गुमान होना चाहिए। क्योंकि यकीन जानिए कि जब तक आपकी पीठ पर माँ-बाप का हाथ रखा हुआ है और यह आत्मविश्वास आपको कोई देने वाला कोई जीवित है कि “घबराना मत बेटा। मैं हूँ तेरे साथ।” तब तक जीवन आप कमज़ोर नहीं पड़ने वाले।
Written By- पुनीत पाराशर
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